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त्वं तमि॑न्द्र॒ पर्व॑तं म॒हामु॒रुं वज्रे॑ण वज्रिन्पर्व॒शश्च॑कर्तिथ। अवा॑सृजो॒ निवृ॑ताः॒ सर्त॒वा अ॒पः स॒त्रा विश्वं॑ दधिषे॒ केव॑लं॒ सहः॑ ॥

English Transliteration

tvaṁ tam indra parvatam mahām uruṁ vajreṇa vajrin parvaśaś cakartitha | avāsṛjo nivṛtāḥ sartavā apaḥ satrā viśvaṁ dadhiṣe kevalaṁ sahaḥ ||

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Pad Path

त्वम्। तम्। इ॒न्द्र॒। पर्व॑तम्। म॒हाम्। उ॒रुम्। वज्रे॑ण। व॒ज्रि॒न्। प॒र्व॒ऽशः। च॒क॒र्ति॒थ॒। अव॑। अ॒सृ॒जः॒। निऽवृ॑ताः। सर्त॒वै। अ॒पः। स॒त्रा। विश्व॑म्। द॒धि॒षे॒। केव॑लम्। सहः॑ ॥

Rigveda » Mandal:1» Sukta:57» Mantra:6 | Ashtak:1» Adhyay:4» Varga:22» Mantra:6 | Mandal:1» Anuvak:10» Mantra:6


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SWAMI DAYANAND SARSWATI

फिर ईश्वर का उपासक कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

Word-Meaning: - हे (वज्रिन्) प्रशस्त शस्त्रविद्यावित् (इन्द्र) दुष्टों के विदारण करनेहारे सभाध्यक्ष ! जो (त्वम्) आप (महाम्) श्रेष्ठ (उरुम्) बड़ी वीर पुरुषों की सत्कार के योग्य उत्तम सेना को (अवासृजः) बनाइये और (वज्रेण) वज्र से जैसे सूर्य्य (पर्वतम्) मेघ को छिन्न-भिन्न कर (निवृताः) निवृत्त हुए (अपः) जलों को धारण करता और पुनः पृथिवी पर गिराता है, वैसे शत्रुदल को (पर्वशः) अङ्ग-अङ्ग से (चकर्त्तिथ) छिन्न-भिन्न कर शत्रुओं का निवारण करते हो (सत्रा) कारणरूप से सत्यस्वरूप (विश्वम्) जगत् को अर्थात् राज्य को धारण करके (केवलम्) असहाय (सहः) बल को (सर्त्तवै) सबको सुख से जाने-आने के न्यायमार्ग में चलने को (दधिषे) धरते हो (तम्) उस आपको सभा आदि के पति हम लोग स्वीकार करते हैं ॥ ६ ॥
Connotation: - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जो शत्रुओं के छेदन, प्रजा के पालन में तत्पर, बल और विद्या से युक्त है, उसी को सभा आदि का रक्षक अधिष्ठाता स्वामी बनावें ॥ ६ ॥ इस सूक्त में अग्नि और सभाध्यक्ष आदि के गुणों के वर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥
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SWAMI DAYANAND SARSWATI

पुनस्तदुपासकः कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥

Anvay:

हे वज्रिन्निन्द्र ! यस्त्वं महामुरुं वीराणां पूज्यतमां सेनामवासृजो वज्रेण यथा सूर्यः पर्वतं छित्त्वा निवृता अपस्तथा शत्रुसमूहं पर्वशश्चकर्त्तिथाङ्गमङ्गं कृन्तसि निवारयसि सत्रा विश्वं केवलं सहश्च सर्तवै दधिषे तन्त्वां सभाद्यधिपतिं वयं गृह्णीमः ॥ ६ ॥

Word-Meaning: - (त्वम्) सेनेशः (तम्) वक्ष्यमाणम् (इन्द्र) सूर्य इव शत्रुबलविदारक (पर्वतम्) मेघाश्रितं जलमिव पर्वताश्रितं शत्रुम् (महाम्) पूज्यतमम् (उरुम्) बहुबलादिगुणविशिष्टिम् (वज्रेण) किरणैरिव तीक्ष्णेन शस्त्रसमूहेन (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रधारिन् (पर्वशः) अङ्गमङ्गम् (चकर्तिथ) कृन्तसि (अव) विनिग्रहे (असृजः) सृज (निवृताः) निवारिताः (सर्तवै) सर्तुं गन्तुम् (अपः) जलानीव (सत्रा) सत्यकारणरूपेणाविनाशि। सत्रेति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१०) (विश्वम्) जगत् (दधिषे) धरसि (केवलम्) असहायम् (सहः) बलम् ॥ ६ ॥
Connotation: - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः शत्रूणां छेत्ता प्रजापालनतत्परो बलविद्यायुक्तोऽस्ति, स एव सभाद्यध्यक्षः कार्य्यः ॥ ६ ॥ अस्मिन् सूक्तेऽग्निसभाध्यक्षादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥
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MATA SAVITA JOSHI

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Connotation: - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. शत्रूंचे छेदन करणारा, प्रजेचे पालन करणारा, बल व विद्या यांनी युक्त असणारा अशा माणसाला सभा इत्यादीचा रक्षक अधिष्ठाता स्वामी बनवावे. ॥ ६ ॥